Copied from the Diary from last night बैठ मुंडेर पर नीहार रहा है पथिक भ्रांत दृश्य एक सामने उसके रचा हुआ है रचनाकार का बसंत विशेष दिवास्वप्न-सा आगंतुक अविचल है ऋतुराज का दृश्य नवल नवीन मानो शाख शिखरों पर जा बैठा हो सूरज चाँद का कोई दर्पण रंगीन उधर समुद्र किनारे दूर क्षितिज पर चुंबन करता नीर गगन को इधर तलैया तीरे उथले जल में मछली भी अतुर आलिंगन को हरे हुऐ हैं पीले पड़े थे पतझड़ पे पत्ते जो खिल उठे हैं सिमटे हुए थे कमल के पुष्प लो घन-घन करती छा रही है चारों ओर घनघोर घटा टप-टप करके टपक रहा है इधर-उधर जल वर्षा का सर-सर करती बह रही है साए से बौराई हवा राहगीर भी लौट रहे हैं राह पर से यदा-कदा हौले-हौले से आ रही है निशा की लाली समीप सिमट-सिमट कर उड़ रहे हैं पक्षी भी पेड़ों के बीच इतने में विस्मित होकर उठता है वह पथिक भ्रांत जाग उठी है भीतर मन के अभिलाषा की एक क्रांत हो ना हो इन आभूषणों का कारण है कुछ यूँ ही नहीं प्रकृति करेगी धारण ये सब कुछ शायद इंकित करता अंबर पर अंकित यह नील रोशन होगा किसी समय पर नाम तुम्हारा भी बिस्मिल चलता है फिर धैर्य धरा का धरके वह भेश बैठ मुंडेर पर नीहार रहा था यश