ऐसा हो ही नहीं सकता कि आप टोक्यो में हो और दो महीने पहले से आपकी सारी दिनचर्या तय हो गई हो,
आपके ना जाने के सिर्फ़ दो करण हो सकते हैं, एक : आपको जाने की इच्छा नहीं है (संभवतः यह), या फिर दो : आप उस दिन टोक्यो में नहीं हो।
आप जापानी लोगों की इस प्रकार की आदतें हमें बिलकुल भी पसंद नहीं है। दुनिया में कुछ ही चुनिंदा लोग होंगे जो हमसे ज़्यादा काम करते होंगे, क्योंकि सभी के पास बराबर का वक़्त है, २४ घंटे। तो अगर साथ चलने की इच्छा है और उस एक लौते दिन या समय इत्यादि की ही दिक़्क़त है, तो फिर ज़ाहिर है साथ मिलकर उसे सुलझाया जा सकता है।
यूँ संचिप्त में बेमतलब का उत्तर देना बेहद ही अपमानजनक है। यह हमारी नज़रों में आप जापानीयों की अधूरी परवरिशों का भी सूचक है, जहां आपको यह तो सिखाया जाता है कि बाहरी सुंदरता और गोरा रंग कैसे लाए, मगर इस पर ज़ोर दिया जाता कि दोस्त कैसे बनाए और दोस्ती किसे निभाए। आधुनिक जापानी समाज के अंदरूनी खोखलेपन और इसकी दरारों से सीप रहीं अकेलापन और मानसिक तकलीफ़ों के एहसासों की जड़े शायद यही ग़ैर समाजीपन होना है। चिरंचे, हाल ही में हमारे कम से कम तीन जापानी दोस्तों और परिचितों ने अपने किसी अपने की उदासीनता की चर्चा की है। ख़ास तौर पर टोक्यो में ज़्यादातर लोग ख़ाली, अकेले और ऊबे हुए तो है, मगर इसके बावजूत उनके पास किसी के लिए समय उपलब्ध नहीं है। इसकी वजह क्या है ? क्या मानव सभ्यता की आधुनिकता है मोल यह है ? की हम बेशक धन, सुख और बैभव तो अपार कमाये, मगर इस अंधी दोड़ में मानव होना ही भूल जाये ? भारत विकसित तो हुआ है, लेकिन आधुनिकता की सारी बीजे उसमे अभी पुनर्जीवित होना बाक़ी हैं।
ख़ैर, काफ़ी दिनों से इन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की तलाश में थे, आज आपका ज़रिए ले लिया ~
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